अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जीवन परिचय - Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh Biography In Hindi

(जीवनकाल सन् 1865 ई॰ से सन् 1947 ई॰)
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। इन्होंने आधुनिक खड़ीबोली के काव्य-क्षेत्र को अपनी मौलिक प्रतिभा के आधार पर समृध्द बनाया। हरिऔधजी ने प्राचीन विषयों, छन्दों तथा काव्य के अन्तरंग और बहिरंग पक्षों पर नवीन युग की उभरती हुई मान्यताओं की रंग-भरी तूलिका फेरी। इनकी काव्यधारा; युग की परम्पराओं एवं मान्यताओं को यथार्थ रूप में लेकर प्रवाहित हुई है। इस दृष्टि से आधुनिक कविता का सर्वप्रथम प्रगतिशील कवि हरिऔधजी को कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
जीवन परिचय - अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी का जन्म आजमगढ़ जिले के निजामाबाद गाँव में सन् 1865 ई॰ (संवत् 1922) में हुआ था। इनके पिता का नाम पं॰ भोलासिंह और माता का नाम रुक्मिणी देवी था। इनके पूर्वज शुक्ल-यजुर्वेदी सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो कालान्तर में सिक्ख हो गए थे। मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् इन्होंने काशी के क्वीन्स कॉलेज में प्रवेश लिया, किन्तु अस्वस्थता के कारण इन्हें बीच में ही अपना विद्यालयीय अध्ययन छोड़ देना पड़ा। तत्पश्चात् इन्होंने घर पर ही फारसी, अंग्रेजी, और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया। सत्रह वर्ष की अवस्था में इनका विवाहा हुआ। कुछ वर्ष तक इन्होंने निजामाबाद के तहसीली स्कूल में अध्यापन-कार्य किया। बाद में 20 वर्ष तक कानूनगो के पद पर कार्य किया। कानूनगो पद से अवकाश प्राप्त करके हरिऔधजी ने 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' में अवैतनिक रूप से अध्यापन कार्य किया। हरिऔधजी के जीवन का ध्येय अध्यापन ही रहा। उनका जीवन सरल, विचार उदार और लक्ष्य महान् था। सन् 1947 ई॰ (संवत् 2004) में अपार यश प्राप्त कर हरिऔधजी ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।
साहित्यिक योगदान
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि एवं गद्य-लेखक थे। हरिऔधजी पहले ब्रजभाषा में कविता किया करते थे। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इन्हें खड़ीबोली में काव्य-रचना की प्रेरणा दी। इसलिए आगे चलकर इन्होंने खड़ीबोली में काव्य-रचना की ओर हिन्दी काव्य को अपनी प्रतिभा का अमूल्य योगदान दिया।
हरिऔधजी काव्य को लोकहित एवं मानव-कल्याण के प्रेरकीय साधन के रूप में स्वीकार करते थे। ये कविता को ईश्वर-प्रदत्त अलौकिक वरदान समझकर काव्य-रचना करते थे; इसलिए इनके काव्य में सर्वमंगल का स्वर मुखरित होता है। इनके काव्य में पौराणिक एवं आधुनिक समाज के ख्यातिप्राप्त लोकनायक-नायिकाओं को प्रतिनिधि स्थान प्राप्त हुआ है। भावुकता के साथ ही मौलिकता को प्रश्रय देनेवाले हरिऔधजी की एक अन्य विशेषता काव्यात्मक विषयों की विविधता भी रही है। इसी कारण इनके काव्य में भक्तिकाल, रीतिकाल एवं आधुनिक काव्य के उज्जवल पहलुओं का समावेश हुआ है।
हिन्दी-साहित्य सम्मेलन ने इनकी काव्यकृति 'प्रियप्रवास' पर 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' प्रदान किया। तत्पश्चात् इन्हें 'कवि सम्राट्' एवं 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधियों से भी सम्मानित किया गया। हरिऔधजी की साहित्यिक सेवाओं का ऐतिहासिक महत्व है। वे हिन्दी-साहित्य की एक महान् विभूति के रूप में सदैव स्मरण किए जाएँगे।
कृतियाँ
खड़ीबोली को काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करनेवाले कवियों में हरिऔधजी का नाम अत्यधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-
(क) नाटक- 'प्रद्युम्न-विजय' तथा 'रूक्मिणी-परिणय'।
(ख) उपन्यास- हरिऔधजी का प्रथम उपन्यास 'प्रेमकान्ता' है। 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' और 'अधखिला फूल' प्रारम्भिक प्रयास की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
(ग) काव्य-ग्रन्थ- वस्तुत: हरिऔधजी की प्रतिभा का विकास एक कवि के रूप में हुआ। इन्होंने पन्द्रह से अधिक छोटे-बड़े काव्यों की रचना की। उनके प्रमुख काव्य-ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
(1) प्रियप्रवास- यह विप्रलम्भ श्रृंगार पर आधारित महाकाव्य है। इसके नायक व नायिका शुध्द मानव-रूप में सामने आए हैं। नायक श्रीकृष्ण लोक-संरक्षण तथा विश्व-कल्याण की भावना से परिपूर्ण मनुष्य हैं।
(2) रस-कलश- इसमें हरिऔधजी की आरम्भिक स्फुट कविताएँ संकलित हैं। ये कविताएँ श्रृंगारप्रधान हैं तथा काव्य-सिध्दान्त-निरूपण के लिए लिखी गई हैं।
(3) चोखे चौपदे तथा चुभते चौपदे- इसमें खड़ीबोली पर आधारित मुहावरों का सौन्दर्य दर्शनीय है। इन मुहावरों में लौकिक जगत् की झलक मिलती है।
(4) वैदेही-वनवास- यह प्रबन्ध-काव्य है। आकार की दृष्टि से यह ग्रन्थ छोटा नहीं है, किन्तु इसमें 'प्रियप्रवास' जैसे काव्यत्व का अभाव है।
हरिऔधजी के इन ग्रन्थों में जाति-सेवा, देश-सेवा, समाज-सेवा तथा राष्ट्र-सेवा की भावनाएँ हिलोरे ले रही हैं। वास्तव में वे द्विवेदी युग की महान् विभूति थे। इनका काव्य 'प्रियप्रवास' तो इस दृष्टि से सदैव अमर रहेगा।
                             काव्यगत विशेषताएँ
हरिऔधजी के काव्य की भाव एवं कलापक्षीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ
(1) हरिऔधजी का दृष्टिकोण- हरिऔधजी की कविता में वर्तमान की शब्दावली में अतीत की अभिव्यक्ति हुई है। विद्यापति से लेकर 'रत्नाकर' तक हिन्दी के किसी भी कवि ने श्रीकृष्ण के चरित्र का वह आदर्श प्रस्तुत नहीं किया, जो हरिऔधजी ने 'प्रियप्रवास' में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में कवि ने भगवान् श्रीकृष्ण के परम्परागत रूप को नहीं अपनाया, वरन् वे साधारण मनुष्य के रूप में ही चित्रित किए गए हैं। देशप्रेम और कर्त्तव्यपरायणता के सामने व्यक्तिगत प्रेम को महत्वहीन दिखाकर कवि ने राधा-कृष्ण को परहिताय और लोक-कल्याणकारी कार्यों में रत दिखाया है। राधा विश्व-प्रेम और सेवाभाव को अपनाती हैं। दीन-दु:खियों की सेवा और विश्व-प्रेम की भावना कवि की मौलिक उद्भावना है। राधा 'परहिताय' की भावना के लिए आजीवन बिछोह-भावना को ही महत्वपूर्ण मानती हैं-
प्यारे जीवें,जग-हित करें,गेह चाहे न आवें।
(2) रस-योजना सम्बन्धी विशेषताएँ- 'प्रियप्रवास' विप्रलम्भ श्रृंगार पर आधारित ग्रन्थ है। इसमें आदि से अन्त तक वियोगजन्य करूणा का प्राधान्य है। प्रारम्भिक सर्गों में कुछ क्षण के लिए संयोग श्रृंगार की झलक अवश्य मिलती है, किन्तु वह आगामी वियोग के लिए पृष्ठभूमि का कार्य कर रही है।
वियोग श्रृंगार की सरिता में सबसे गतिशील और तीव्र लहर वात्सल्य-भाव की प्रवाहित हो रही है। यह वात्सल्य नन्द, यशोदा, गोप-गोपीजन आदि के ह्रदयों से हठात् झलकता हुआ प्रतीत होता है। मथुरा से नन्द बाबा के अकेले ही लौट आने पर व्याकुल यशोदा के विलाप में इतनी करूणा, कसक, वेदना एवं टीस भरी हुई है कि उसे सुनकर पत्थर-ह्रदय भी पिघल जाता है-
प्रिय पति,वह मेरा प्राणप्यारा कहाँ है?
दुख-जलधि निमग्ना का सहारा कहाँ है?
अब तक जिसको मैं देख के जी सकी हूँ।
वह ह्रदय हमारा,नैन-तारा कहाँ है?
इस वात्सल्य भाव के साथ ही राधा का वियोग भी ह्रदयद्रावक और मर्मस्पर्शी है। विरहिणी राधा वियोग की अग्नि में तपकर विरह की साकार प्रतिमा बन जाती हैं। राधा जनसेवा एवं परोपकार के लिए सर्वस्व बलिदान करके अपने प्रिय के कार्य की चिर-सहचरी बन जाती हैं।
नि:सन्देह 'प्रियप्रवास' में रसों की गहनता के साथ-साथ विविध भावों की मार्मिक अभिव्यंजना भी हुई है।
(3) प्रकृति-चित्रण- प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से हरिऔधजी ने भले ही नवीनता का समावेश न किया हो, फिर भी आधुनिककाल के कवियों में वे अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। द्विवेदी युग के अन्य कवियों की अपेक्षा इनका प्रकृति-वर्णन अधिक विस्तृत और भावनाओं के अनुरूप हुआ है। प्रकृति-चित्रण के अन्तर्गत नूतन सौन्दर्य-बोध हमें सर्वप्रथम 'प्रियप्रवास' में ही मिलता है।
'प्रियप्रवास' की प्रकृति संवेदनात्मक अधिक है। कवि के अनुसार प्रकृति के क्रियाकलाप भी मानव-मनोभावों के अनुरूप ही होते हैं-
अहह अहह देखो  टूटता है वह तारा,
पतन किसी दिलजले के गात का हो रहा है।
इसके अतिरिक्त हरिऔधजी ने प्रकृति-चित्रण की सभी प्रचलित पध्दतियों का प्रयोग करते हुए प्रकृति की सजीव झाँकियाँ अंकित की हैं, फिर भी अनेक स्थलों पर इनके प्रकृति-चित्रण में तल्लीनता, स्वाभाविकता और भावुकता का अभाव प्रतीत होता है।
(ब) कलापक्षीय विशेषताएँ
हरिऔधजी के कलापक्ष की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) भाषा के विभिन्न रूप- हरिऔधजी नेअपने विभिन्न काव्य-ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है। इन्होंने एक ओर जहाँ सरल, मुहावरेदार, सुबोध तथा बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है, वहीं इनके काव्य में सरल, तत्सम शब्द प्रधान खड़ीबोली का प्रयोग भी हुआ है। 'प्रियप्रवास' और 'पारिजात' जैसे महाकाव्यों में संस्कृत की समासान्त क्लिष्ट पदावली का प्रयोग भी इन्होंने किया है।
'प्रियप्रवास' की भाषा संस्कृतगर्भित खड़ीबोली है, किन्तु इसमें बोलचाल की भाषा का पुट भी है। जहाँ कवि ने 'रूपोद्यान-प्रफुल्ल-प्रायकलिका,राकेन्दु-बिम्बावना' जैसे संस्कृत-समासान्त पदों की रचना की है, वहीं 'अहह दिवस ऐसा हाय क्यों आज आया' जैसी सरल, सुबोध, समासहीन एवं बोलचाल की भाषा का भी प्रयोग किया है।
(2) प्रभावी अलंकार-योजना- भावों के चित्रण, चमत्कार-प्रदर्शन एवं
सौन्दर्य-निरूपण के लिए हरिऔधजी ने अलंकारों के यथोचित प्रयोग किए हैं। यद्यपि हरिऔधजी ने परम्परागत उपमानों का प्रयोग किया है, तथापि इनके प्रयोगों में नवीनता है और अलंकारों के कारण रस या भाव-निरूपण में बाधा उत्पन्न नहीं हुई है।
'प्रियप्रवास' में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग हुआ है। उनमें भी सादृश्यमूलक (समान भाव से युक्त) अलंकारों का प्रयोग अधिक है। आकृति, भाव, गुण एवं रंग आदि की समता के लिए कवि ने उपमा अंलकार का सर्वाधिक प्रयोग किया है। इसी प्रकार उत्प्रेक्षा, रूपक, रूपकातिशयोक्ति, अपह्रुति, व्यतिरेक, सन्देह, स्मरण, प्रतीप, विषम, दृष्टान्त, निदर्शना, अर्थान्तरन्यास आदि अर्थालंकारों द्वारा कवि ने पात्रों के मनोभावों की सजीव एवं मार्मिक स्थितियाँ चित्रित की हैं।
(3) छन्द-विधान- 'प्रियप्रवास' में सर्वत्र वर्णिक छन्दों का प्रयोग हुआ है। हरिऔधजी ने हिन्दी-काव्य में नवीन क्रान्ति उत्पन्न करते हुए जहाँ कथानक के अन्तर्गत नवीन उद्भावना प्रकट की है, वहीं परम्परागत छन्दों के अन्तर्गत नवीन परम्परा का उद्बोध भी किया है। इनका यह नवीन प्रयोग उनके परिश्रम तथा कार्य-कुशलता का द्योतक है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
काव्य के क्षेत्र में भाव, भाषा, शैली, छन्द एवं अलंकारों की दृष्टि से हरिऔधजी की काव्य-साधना महान् है। इन्हें हिन्दी का सार्वभौम कवि माना जाता है। इन्होंने खड़ीबोली व ब्रजभाषा तथा सरल-से-सरल एवं जटिल-से-जटिल भाषा में अपने काव्य की रचना की तथा भाव एवं भाषा दोनों ही क्षेत्रों में विलक्षण प्रयोग किए। भावों की दृष्टि से इनकी उद्भावनाएँ पूर्णत: मौलिक हैं तथा इनकी काव्य-कला मानव-मन को सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेनेवाली है।

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