सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का जीवन परिचय - Sachidanand Hiranand Vatsyayan Agay Biography In Hindi
जीवन परिचय - बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार अज्ञेयजी का जन्म पंजाब प्रान्त के करतारपुर (जालन्धर) नगर में सन् 1911 ई॰ में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हीरानन्द शास्त्री था। ये मूलत: भणोत सारस्वत ब्राह्मण कुल के थे, लेकिन जातीय संकीर्णता को दूर करने के लिए इन्होंने अपने नाम के साथ 'वात्स्यायन' लिखना आरम्भ किया।
अज्ञेयजी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई। तत्पश्चात् इन्होंने फारसी और अंग्रेजी पढ़ी। इनकी उच्च शिक्षा मद्रास (चेन्नई) और लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुई। सन् 1929 ई॰ में विज्ञान स्नातक होने के बाद ये अंग्रेजी साहित्य में एम॰ ए॰ कर रहे थे कि इन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेने के कारण जेल में बन्द कर दिया गया। सन् 1930 ई॰ से 1934 ई॰ तक ये जेल में रहे और वहीं लेखन-कार्य करते रहे। इनका 'अज्ञेय' नाम जेल में ही रखा गया। सन् 1955 ई॰ में ये यूनेस्को द्वारा प्रदत्त स्कॉलरशिप प्राप्त कर यूरोप गए। सन् 1957 ई॰ में इन्होंने जापान और पूर्वी एशिया का भ्रमण किया। कुछ समय तक ये अमेरिका में 'भारतीय साहित्य और संस्कृति' के प्राध्यापक रहे। जोधपुर विश्वविद्यालय में भी वे 'तुलनात्मक साहित्य तथा भाषा अनुशीलन विभाग' के निदेशक रहे। अज्ञेयजी हिन्दी के समाचार साप्ताहिक 'दिनमान' के प्रथम सम्पादक थे।
4 अप्रैल, सन् 1987 ई॰ को यह गरिमामय व्यक्तित्व परमतत्व में लीन हो गया। मरणोपरान्त सच्चिदानन्दजी को 'भारतीय ज्ञानपीठ' पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
साहित्यिक सेवाएँ - सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र में एक लब्धप्रतिष्ठित
विद्वान् साहित्यकार समझे जाते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में भाषा सम्बन्धी विभिन्न प्रयोग किए हैं। संस्कृतनिष्ठ भाषा से लेकर बोलचाल की भाषा में भी इन्होंने साहित्यिक रचनाएँ की हैं। उन्होंने नाटक, निबन्ध, यात्रावृत, संस्मरण सभी विधाओं में गद्य-रचना करके हिन्दी-साहित्य को समृध्द किया है। तुलनात्मक साहित्य के सृजन एवं भाषा अनुशीलन की इनमें अद्भुत एवं अलौकिक सामर्थ्य थी।
कृतियाँ
अज्ञेयजी का प्रमुख कृतित्व इस प्रकार है-
(1) निबन्ध-संग्रह - (1) त्रिशंकु, (2) आत्मनेपद, (3) हिन्दी-साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, (4) सब रंग और कुछ राग, (5) लिखि कागद कोरे, (6) तीनों सप्तकों की भूमिकाएँ।
(2) यात्रा-साहित्य - (1) अरे यायावर रहेगा याद, (2) एक बूँद सहसा उछली।
(3) उपन्यास - (1) शेखर : एक जीवनी, (2) नदी के द्वीप, (3) अपने-अपने अजनबी आदि।
(4) कहानी-संग्रह - (1) विपथगा, (2) परम्परा, (3) कोठरी की बात, (4) शरणार्थी, (5) जयदोल, (6) तेरे ये प्रतिरूप, (7) अमर वल्लरी आदि।
(5) नाटक - उत्तर प्रियदर्शी।
काव्य-कृतियाँ - आँगन के पार द्वार, अरी ओ करूणा प्रभामय, हरी घास पर क्षणभर, सुनहले शैवाल, इत्यलम्, पूर्वा, बावरा अहेरी, कितनी नावों में कितनी बार, इन्द्रधनु रौंदे हुए ये आदि।
भाषा-शैली
अज्ञेयजी की भाषा-शैली की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-
(अ) भाषागत विशेषताएँ - अज्ञेयजी की वैविध्यपूर्ण भाषा में निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ हैं-
(1) शब्दों के नए अर्थ की अभिव्यक्ति - भाषा की दृष्टि से अज्ञेयजी ने सदैव जीवन्त एवं समर्थ शब्दों का प्रयोग किया है। इन्होंने शब्दों के प्रयोग में मितव्ययिता का दृष्टिकोण अपनाया है और एक ही शब्द को कई नए अर्थबोध में प्रयुक्त किया है।
(2) संस्कृतनिष्ठ एवं सारगर्भित - अज्ञेयजी ने अपनी अधिकांश रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया है, जो शब्दों की अभिव्यंजना-शक्ति की समर्थता के कारण सारगर्भित दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि इनकी भाषा में एक-दो सामान्य उर्दू के शब्द भी दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु इनकी उपस्थिति नगण्य ही है।
(3) स्वनिर्मित शब्दयुग्मों का प्रयोग - अज्ञेयजी ने अपनी भाषा में अनेक स्वनिर्मित शब्दयुग्मों का प्रयोग किया है और इस प्रयोग से अपनी भाषा की अभिव्यक्ति-क्षमता को एक नया रूप प्रदान कर नई शक्ति से भर दिया है। उदाहरणस्वरूप -- क्षीण-सी सज्जा, दर्दीली मुस्कराहट, मीठी गरमाई, स्नेह की धूप आदि।
(ब) शैलीगत विशेषताएँ - अज्ञेयजी की शैली में बौध्दिकता की अधिकता है। इन्होंने शैली पर आधारित अनेक प्रयोग किए। उनकी शैलीगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) आलोचनात्मकता (आलोचनात्मक शैली) - इस शैली की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है। इनकी अन्य शैलियों की अपेक्षा यह शैली दुरूह और गम्भीर है। बीच-बीच में सूक्तियों का प्रयोग भी इस शैली में किया गया है; यथा -- "भाषा बुध्दि का एक उपकरण है, सम्यक् निरूपण या वर्णन का वह माध्यम है।"
(2) विवरणात्मकता (विवरणात्मक शैली) - इस शैली में लेखक ने किसी भी विषयवस्तु या स्थान का परिचय विस्तार से दिया है। वाक्य छोटे-छोटे और सरल हैं। एक उदाहरण देखिए -- "हमने कहा पड़ोस का गाँव। असल में उसे पड़ोस कहना उससे सम्बन्ध जोड़ना नहीं, उसे कुछ दूरी देना था। क्योंकि सच बात यह थी कि दोनों गाँव अलग-अलग नहीं थे, एक ही गाँव पोखर को बीच में डालता हुआ दो भागों में बँट गया था।"
(3) संवादात्मकता (संवाद शैली) - अज्ञेयजी ने अपने निबन्धों में नाटकीय संवादों का भरपूर प्रयोग किया है। इससे उनमें रोचकता बढ़ी है। भाषा बड़ी प्रभावपूर्ण एवं प्रभावोत्पादक हो गई है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
मैंने कहा -- "इतनी बड़ी और लाल? कहाँ से लाए? यहाँ तो गिलहरी छोटी और धारीदार होती है.........।" उसने बात काटकर कहा -- "बर्मा से लाया हूँ।"
(4) भावात्मकता (भावात्मक शैली) - कवि हृदय के कारण अज्ञेयजी के गद्य में भावात्मकता है, जिससे इनकी रचनाओं में रमणीयता और काव्यात्मकता आ गई है। जैसे --
"यौवन के ज्वार में समुद्र-शोषण। सूर्योदय पर रजनी के उलझे और घनी छायाओं से भरे कुन्तल। शारदीय नभ की छटा पर एक भीमकाय काला बरसाती बादल।"
(5) उध्दरणप्रधानता (उध्दरण शैली) - लेखक ने यत्र-तत्र अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत के उध्दरणों का प्रयोग भी किया है। कई बार तो लेख का प्रारम्भ ही उध्दरणों से किया गया है। इनसे लेखक के विस्तृत अध्ययन का पता लगता है। उदाहरण के लिए देखें -- "इट इज नाट गुड द मैन शुड बी एलोन।"
(6) व्यंग्यात्मकता (व्यंग्यात्मक शैली) - अज्ञेयजी ने अपने लेखन में व्यंग्य का भी समावेश किया है; यथा -- "शैतान के परराष्ट्र सचिवालय की जाँच करने से मालूम हुआ कि साँप रक्षित फलज्ञान का फल है। गुप्त सूत्र से यह भी सूचना मिली है कि इस फल पर समूचे उद्यान के निवासियों का भविष्य निर्भर है।"
हिन्दी-साहित्य में स्थान - प्रयोगवादी साहित्यकारों की श्रेणी में अज्ञेयजी का अग्रणी स्थान है। कुछ विद्वान् इन्हें प्रयोगवादी साहित्य का प्रवर्त्तक भी मानते हैं। हिन्दी-साहित्य को नई विधाओं एवं नई सोच से सम्पन्न करने का श्रेय इन्हीं को जाता है। अज्ञेयजी एक युगान्तरकारी साहित्यकार थे। रमेशचन्द्र शाह के अनुसार, "अज्ञेय न केवल हिन्दी में आधुनिक भावबोध के प्रवर्त्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, बल्कि लगभग आधी सदी तक अपनी और परवर्ती पीढ़ी के लिए प्रेरणा और चुनौती भी बने रहे। किसी भी भाषा के साहित्य में अज्ञेय जैसे बहुत कम लेखक होते हैं, जो अपने जीवन और लेखन दोनों में ही महान् होते हैं।"

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