सूरदास का जीवन परिचय - Surdas Biography In Hindi
सूरदास जी का जीवन परिचय
सूरदास की रूचि बचपन से ही भगवद्भक्ति के गायन में थी। इनसे भक्ति का एक पद सुनकर पुष्टिमार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया और श्रीनाथ के मन्दिर में कीर्तन का भार सौंप दिया। श्री वल्लभाचार्य के पुत्र बिट्ठलनाथ ने 'अष्टछाप' नाम से आठ कृष्णभक्त कवियों का जो संगठन किया था, सूरदास जी इसके सर्वश्रेष्ठ कवि थे। वे गऊघाट पर रहकर जीवनपर्यन्त कृष्ण की लीलाओं का गायन करते रहे।
सूरदास जी का स्वर्गवास सन् 1583 ई॰ (सं॰ 1640 वि॰) में गोसाईं बिट्ठलनाथ के सामने गोवर्ध्दन की तलहटी के पारसोली नामक ग्राम में हुआ।
'खंजन नैन रूप रस माते' पद का गान करते हुए इन्होंने अपने भौतिक शरीर का त्याग किया।
कृतियाँ
महाकवि सूरदास की निम्नलिखित तीन रचनाएँ ही उपलब्ध हैं-(1) सूरसागर - श्रीमद्भागवत् के आधार पर रचित 'सूरसागर' के सवा लाख पदों में से अब लगभग दस हजार पद ही उपलब्ध बताये जाते हैं, जिनमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उध्दव-गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस वर्णन है। सम्पूर्ण 'सूरसागर' एक गीतिकाव्य है। इसके पद तन्मयता के साथ गाये जाते हैं तथा यही ग्रन्थ सूरदास की कीर्ति का स्तम्भ है।
(2) सूर-सारावली - इसमें 1,107 पद हैं। यह 'सूरसागर' का सारभाग है।
(3) साहित्य-लहरी - इसमें 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है। इस ग्रन्थ में किसी एक विषय की विवेचना नहीं हुई है, वरन् मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अंलकारों की विवेचना की गयी है। इसमें कहिं-कहिं पर कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन हुआ है तो एकाध स्थलों पर महाभारत की कथा के अंशों की झलक भी मिलती है।
साहित्य में स्थान - भक्त कवि सूरदास का स्थान हिन्दी-साहित्याकाश में सूर्य के समान ही है। इसीलिए कहा गया है
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास॥

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