डॉ राजेंद्र प्रसाद का जीवन परिचय - Dr. Rajendra Prasad Biography In Hindi

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का जीवन परिचय

जीवन परिचय -- देशरत्न डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का जन्म सन् 1884 ई॰ में बिहार राज्य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम महादेव सहाय था। इनका परिवार गाँव के सम्पन्न और प्रतिष्ठित कृषक परिवारों में से था। इन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय से एम॰ ए॰; एल-एल॰ बी॰ की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। ये प्रतिभासम्पन्न और मेधावी छात्र थे और परीक्षा में सदैव प्रथम आते थे। कुछ समय तक मुजफ्फरपुर कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के पश्चात् ये पटना और कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील भी रहे। इनका झुकाव प्रारम्भ से ही राष्ट्रसेवा की ओर था। सन् 1917 ई॰ में गाँधी जी के आदर्शों और सिध्दान्तों से प्रभावित होकर इन्होंने चम्पारन के आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया और वकालत छोड़कर पूर्णरूप से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। अनेक बार जेल की यातनाएँ भी भोगीं। इन्होंने विदेश जाकर भारत के पक्ष को विश्व के सम्मुख रखा। ये तीन बार अखिल भारतीय कांग्रेस के सभापति तथा भारत के संविधान का निर्माण करने वाली सभा के सभापति चुने गये।

राजनीतिक जीवन के अतिरिक्त बंगाल और बिहार में बाढ़ और भूकम्प के समय की गयी इनकी सामाजिक सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। 'सादा जीवन उच्च-विचार' इनके जीवन का पूर्ण आदर्श था। इनकी प्रतिभा, कर्त्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता से प्रभावित होकर इनको भारत गणराज्य का प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। इस पद को ये सन् 1952 से सन् 1962 ई॰ तक सुशोभित करते रहे। भारत सरकार ने इनकी महानताओं के सम्मान-स्वरूप देश की सर्वोच्च उपाधि 'भारतरत्न' से सन् 1962 ई॰ में इनको अलंकृत किया। जीवन भर राष्ट्र की नि:स्वार्थ सेवा करते हुए ये 28 फरवरी, 1963 ई॰ को दिवंगत हो गये।

                                 रचनाएँ-- 

  राजेन्द्र बाबू की प्रमुख रचनाओं का विवरण निम्नवत् है

(1) चम्पारन में महात्मा गांधी, (2) बापू के कदमों में, (3) मेरी आत्मकथा, (4) मेरे यूरोप के अनुभव, (5) शिक्षा और संस्कृति, (6) भारतीय शिक्षा, (7) गांधीजी की देन, (8) साहित्य, (9) संस्कृति का अध्ययन, (10) खादी का अर्थशास्त्र आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।

साहित्य में स्थान-- डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद सुलझे हुए राजनेता होने के साथ-साथ उच्चकोटि के विचारक, साहित्य-साधक और कुशल वक्ता थे। ये 'सादी भाषा और गहन विचारक' के रूप में सदैव स्मरण किये जाएँगे। हिन्दी की आत्मकथा विधा में इनकी पुस्तक 'मेरी आत्मकथा' का उल्लेखनीय स्थान है। ये हिन्दी के अनन्य सेवक और प्रबल प्रचारक थे। राजनेता के रूप में अति-सम्मानित स्थान पर विराजमान होने के साथ-साथ हिन्दी-साहित्य में भी इनका अति विशिष्ट स्थान है।

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